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Reading: शोर नहीं संवेदनाओं से भरा था श्याम बेनेगल का सिनेमा!
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shyam benegal indian film director screenwriter and documentary filmmaker in mumbai on 17th mar 231805588 -
Fourth Special

शोर नहीं संवेदनाओं से भरा था श्याम बेनेगल का सिनेमा!

श्याम बेनेगल के पात्र आपके-हमारे जैसे हैं, जो सिसकते हैं, लड़ते हैं और कई बार हारते भी हैं।

Last updated: दिसम्बर 24, 2024 4:26 अपराह्न
By Rajneesh 10 महीना पहले
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5 Min Read
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14 फरवरी 1934 को हैदराबाद में जन्मा एक लड़के का पूरा बचपन कहानियों नहीं किस्सों से भरा था, जहां किस्से केवल सुनाए नहीं जाते, जीए जाते थे। वह परियों की कहानियों का प्रेमी नहीं था। उसे पसंद थीं गाँव की गलियों की बातें, हल चलाते किसानों की आवाज़ें और औरतों के सिर पर रखी पानी से भरी मटकियों की सौंधी खामोशी। उस लड़के को भी शायद पता नहीं था कि भारतीय सिनेमा के ‘अंकुर – रण’ से लेकर ‘मंथन’ और फिर उस अंकुरित बीज को ‘मिर्च मसाले’ के साथ ‘मंडी’ में उतारने में उसकी कितनी अहम ‘भूमिका’ होने वाली है।

उस सादगी पसंद लड़के का नाम था श्याम बेनेगल… अगर आपने उनका नाम नहीं सुना, तो शायद आप उस कला से अंजान हैं जो पर्दे पर जीवन को जिवंत करती है। लेजेंड फिल्म मेकर कहने से पहले उन्हें फ़कीर कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा, वो फ़कीर जो कैमरे की आँख से समाज के हर कोने को देखता है और अपनी झोली में समेटता है तंग गालियों के किस्से। उनके सिनेमा का रंग किसी इंद्रधनुष सा नहीं, बल्कि मटमैली मिट्टी और मेहनतकश हाथों से सना हुआ है। वह सपनों का शीष महल खड़ा नहीं करते थे । वह जो दिखाते थे, वही यथार्थ का सबसे करीबी सत्य है।

1974 में आई `अंकुर’ एक फ़िल्म नहीं बल्कि एक क्रांति थी। जो पूरे भारतीय सिनेमा के माथे पर अंकित एक तिलक जैसा था।’ अंकुर’ के हर संवादों में समाज का कड़वा सच। ये फ़िल्म नहीं, सिनेमा का साहित्य था। फिर’ निशांत’,’ मंथन’ और’ भूमिका’ जैसी फ़िल्मों ने असल भारत को फिल्म रील के अंदर संजोना शुरू किया। इन फिल्मों में श्याम बेनेगल ने जो दिखाया, वह किसी धूल से सने दर्पण से कम नहीं था। उनका सिनेमा केवल रेशम के पर्दों तक सीमित नहीं रहने वाला था। उनकी फ़िल्में सीधे तौर पर हर भारतीय की आत्मा से संवाद करती थीं। उनके पात्र किसी काल्पनिक दुनिया से नहीं आते; वे आपके-हमारे जैसे हैं, जो रोते – सिसकते हैं, लड़ते हैं, और ज्यादातर हारते भी हैं।

श्याम बेनेगल का कद तब और ऊंचा हो गया जब उन्होंने भारत के इतिहास को एक नई दृष्टि दी। ‘भारत एक खोज’ बनाकर, यह केवल एक टीवी सीरिअल नहीं, भारतीय संस्कृति की जड़ें टटोलने का एक उपक्रम था। पंडित नेहरू की किताब पर आधारित इस सीरीज ने हर भारतीय को उसके अतीत से जोड़ने का किया।

श्याम बेनेगल ने हमेशा महिलाओं को उनके संघर्ष, सपने और व्यक्तित्व के साथ प्रस्तुत किया। उनके पात्र समाज में व्याप्त भेदभाव और असमानता को उजागर करते हैं और यह दिखाते हैं कि महिलाएं केवल सहने वाली नहीं, बल्कि बदलाव की वाहक भी हो सकती हैं। उनका सिनेमा एक ऐसी दुनिया रचता है, जहां महिलाएं अपने दर्द और सीमाओं को ताकत में बदलती हैं।

श्याम बाबू के सिनेमा के एक एक किरदार पर किताबें लिखी जा सकती हैं। जैसे अंकुर की ‘लक्ष्मी’ शबाना आज़मी द्वारा निभाया गया यह किरदार ग्रामीण भारत की उस महिला का प्रतीक है, जो पितृसत्तात्मक समाज में अपनी जगह बनाने का प्रयास करती है। उसका संघर्ष केवल जातिगत नहीं, बल्कि अपने आत्मसम्मान और अस्तित्व के लिए भी है। जब उसे शोषित किया जाता है, तो वह अपने तरीके से प्रतिकार करती है। या फिर ‘मिर्च मसाला’ की सोनबाई – स्मिता पाटिल द्वारा निभाया गया यह किरदार श्याम बेनेगल की सोच और महिला सशक्तिकरण का सबसे सशक्त प्रतीक है।

श्याम बेनेगल की सभी फ़िल्मों में मेरी सबसे पसंदीदा ‘सुरज का सातवां घोड़ा’ है। ये न केवल कहानी कहने का एक अनोखा प्रयास था, बल्कि इसमें महिलाओं के तीन अलग-अलग दृष्टिकोण और जीवन की कई सत्यता से भरी परतें सामने आती हैं। फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण इसका दृष्टिकोण ही है। यह सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि समय और समाज पर एक दार्शनिक विमर्श जैसा कुछ है। इसमें जीवन के प्रति जिज्ञासा और सच्चाई की खोज को बड़े ही प्रभावशाली और सौंदर्यपूर्ण तरीके से पेश किया गया है। आज जब उनकी महानता पर ये लेख लिखने की जहालत कर रहा हूं तो आँखे खुद ब खुद बार बार नम हो जा रही हैं। उनके लिए बस आखिरी शब्द… सलाम श्याम बाबू सलाम!

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