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Khilafat Movement -
Fourth Special

आज की तारीख – 10: आज ही के दिन शुरू हुआ था खिलाफ़त आंदोलन!

महात्मा गांधी खिलाफ़त आंदोलन से जुड़े लेकिन अपने अति उत्साह में वे आंदोलन मे शामिल मुस्लिम मानस का सही आंकलन करने में बुरी तरह विफल रहे।

Last updated: अक्टूबर 17, 2024 1:23 अपराह्न
By Rajneesh 1 वर्ष पहले
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6 Min Read
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17 अक्टूबर 1919 का दिन भारतीय इतिहास में एक अहम मोड़ साबित हुआ। इसी दिन भारत में खिलाफ़त आंदोलन की शुरुआत हुई, जो मुख्य रूप से भारतीय मुसलमानों के धार्मिक और राजनीतिक हितों से जुड़ा था। इस आंदोलन का नेतृत्व तीन प्रमुख नेता – मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना शौकत अली और अबुल कलाम आज़ाद ने किया। खिलाफ़त आंदोलन का उदय प्रथम विश्व युद्ध के बाद उस समय हुआ जब तुर्की के खलीफा की सत्ता संकट में थी, और मुसलमानों को यह डर था कि खलीफा को हटाने से इस्लामिक विश्व में गहरा संकट आ सकता है।

यह आंदोलन तुर्की के खलीफा को सत्ता में बनाए रखने के लिए किया गया था, जो इस्लामिक दुनिया के प्रतीकात्मक नेता माने जाते थे। भारतीय मुसलमानों का यह मानना था कि अगर खलीफा का पतन हुआ, तो पूरे इस्लामिक समाज पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए, भारत के मुसलमानों ने खिलाफ़त आंदोलन के जरिए ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया कि वह खलीफा के समर्थन में खड़े हों और तुर्की के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई न करें।

महात्मा गांधी ने खिलाफ़त आंदोलन की भावनाओं को समझा और इसे अपने असहयोग आंदोलन के साथ जोड़ने का निर्णय लिया। गांधीजी को यह महसूस हुआ कि अगर भारतीय मुसलमान खिलाफ़त आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हैं, तो इससे हिंदू-मुस्लिम एकता को बल मिलेगा, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन के लिए बेहद आवश्यक था। 1920 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की, जिसमें भारतीय जनता से ब्रिटिश शासन के सभी संस्थानों का बहिष्कार करने की अपील की गई।

मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा में लाने के अपने अति उत्साह में गांधीजी मुस्लिम मानस का सही आकलन करने में बुरी तरह विफल रहे। खिलाफत आंदोलन ने विनाशकारी मोड़ ले लिया, साथ ही मालाबार के कांग्रेस नेताओं ने भी खिलाफत के नाम पर मुस्लिम भावनाओं को भड़काने के लिए अत्यधिक भावनात्मक और भड़काऊ भाषण दिए।

इस प्रकार, गांधीजी की अपेक्षा के विपरीत, आंदोलन ने आत्मा भारत में मुसलमानों के बीच दार-उल-इस्लाम की भावना, और भारत, जो एक दार-उल-हर्ब है, को दार-उल-इस्लाम में बदलने के उत्साह का प्रहार, और उसके साथ होने वाली हिंसा पूरे भारत में असहाय, निर्दोष और निश्चिंत हिंदुओं को इसका दंश झेलना पड़ा। मद्रास प्रेसीडेंसी में मालाबार के हिंदुओं को भी, जो मालाबार के मोपलाओं द्वारा किए गए दंगों, आगजनी और हर तरह के अत्याचारों, जिसमें सामूहिक हत्याएं और जबरन धर्म परिवर्तन शामिल हैं, से सबसे अधिक प्रभावित हुए।

हिंदू-मुस्लिम एकता : खिलाफ़त आंदोलन और असहयोग आंदोलन का मिलन हिंदू-मुस्लिम एकता का एक दुर्लभ और शक्तिशाली उदाहरण था। इससे भारत में स्वतंत्रता संग्राम को एक व्यापक जनसमर्थन मिला। दोनों समुदायों ने साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध किया और आंदोलन में भाग लिया। इस आंदोलन ने मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने का कार्य किया। इसने भारतीय मुसलमानों को सक्रिय रूप से राजनीतिक जीवन में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया और स्वतंत्रता संग्राम को एक नए आयाम पर पहुंचाया। खिलाफ़त आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक वैश्विक मुद्दे से जोड़ दिया, जो तुर्की और इस्लामिक विश्व से जुड़ा था। इससे भारतीय मुसलमानों को यह अहसास हुआ कि उनकी स्थिति केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में महत्वपूर्ण है।

हालांकि शुरुआत में हिंदू-मुस्लिम एकता को बल मिला, लेकिन खिलाफ़त आंदोलन की धार्मिक प्रकृति के कारण यह आंदोलन धीरे-धीरे धार्मिक विभाजन का कारण भी बना। हिंदू नेताओं और मुसलमानों के बीच इस मुद्दे पर मतभेद उभरने लगे। मुसलमानों का जोर इस्लामिक खलीफा को बचाने पर था, जबकि हिंदुओं की प्रमुख चिंता राष्ट्रीय स्वतंत्रता की थी।

1924 में जब तुर्की के मुस्तफा कमाल पाशा ने खलीफा को समाप्त कर दिया, तो खिलाफ़त आंदोलन का उद्देश्य ही समाप्त हो गया। इससे भारतीय मुसलमानों में निराशा फैली और आंदोलन की विफलता ने इसे एक अस्थायी संघर्ष के रूप में समाप्त कर दिया।

खिलाफ़त आंदोलन की विफलता का सीधा प्रभाव असहयोग आंदोलन पर भी पड़ा। जब मुसलमानों को लगा कि खिलाफ़त का मुद्दा समाप्त हो गया है, तो उनमें असहयोग आंदोलन के प्रति जोश कम हो गया, जिससे गांधीजी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन को भी झटका लगा।

कुल मिलाकर खिलाफ़त आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह आंदोलन एक ओर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बना, तो दूसरी ओर धार्मिक विभाजन को भी गहरा करने का कारण बना। हालांकि इसने भारतीय मुसलमानों को राजनीतिक जीवन में भागीदारी की प्रेरणा दी, लेकिन इसकी विफलता ने यह साबित कर दिया कि धार्मिक मुद्दों पर आधारित आंदोलनों का प्रभाव सीमित होता है। मौलाना जौहर, मौलाना शौकत अली और अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं ने खिलाफ़त आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इसका परिणाम सीमित ही रहा।





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